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नव संवत्सर पर विशेष उज्जैन से उपजी हिंदू कालगणना का वैश्विक महत्व

नववर्ष प्रतिपदा या हिंदू नववर्ष के विषय में बात करते समय हमें इसकी वैज्ञानिकता का पूर्ण आभास होना चाहिए। हमारी सनातनी कालगणना आज समूचे विश्व को हमें आदर देने को विवश करती है। उज्जैन में महाकाल की मूर्ति या विग्रह केवल धार्मिक चिन्ह नहीं अपितु समय की वैज्ञानिक गणना का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। महाकाल मंदिर के स्थान से ही नौग्रहों की गति, चाल, घूर्णन, और परिधि को और उसके पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव को समझा जा सकता है। विश्व की सभी सभ्यताओं में स्वयं को सर्वोत्तम, सभ्यतम, प्राचीनतम बतानें में एक तथ्य का उल्लेख अवश्य किया जाता है – वह है; कैलेंडर, समय, अर्थात काल की गणना और गणना का वैज्ञानिक आधार।

काल गणना की दृष्टि से हम भारतीय सौभाग्यशाली हैं कि सम्पूर्ण विश्व और प्रमुख वैश्विक वैज्ञानिक संस्थान इस संदर्भ में हमारें शास्त्रों और परम्पराओं की ओर देखते हैं। समय अर्थात काल को जिस स्थान पर महान और ईश्वर तुल्य भाव प्राप्त हुआ वह दुर्लभ स्थान है महाकालेश्वर। स्कन्द पुराण एवं महाभारत अनुसार उज्जैन तीन हजार वर्ष पुरातन नगर है। राजा चंद्रसेन नें इस काल तंत्रसिद्ध मंदिर का निर्माण किया। यह नगर भूगोल की दृष्टि से एक दिव्य, अद्भुत, सिद्ध और शक्तिशाली कोण से सूर्य की किरणों की गणना करता है। प्राचीन भारतीय मनीषियों, ऋषियों, तांत्रिकों और वैज्ञानिकों ने इस स्थान के भौगोलिक, ज्योतिषीय, खगोलीय महत्व को जानते थे। हमारे 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर का देवस्थान उज्जैन में होना उसके सर्वकालिक स्वरूप को आलोकित करता है।

उज्जैन से गुजरनें वाली विषुवत रेखा के सूर्य से विशिष्ट कोणीय संपर्क के कारण मनीषियों ने उज्जैन को पृथ्वी के मणिपुर चक्र अर्थात नाभि स्थल का नाम दिया है। महाकाल की इस नगरी में अनेकों घटनाओं, वृतांतों, व्यक्तियों, आविष्कारों, साधनाओं, ग्रंथो और भविष्य सूत्रों का अविष्कार हुआ है तो इस नगरी की काल गणना की क्षमता के आधार पर ही हुआ है। उज्जैन को अपनी साधना स्थली बनाने वाले ऋषि संदीपनी, महाकात्यायन, भास, भर्तृहरि, कालिदास, वराहमिहिर, अमरसिंहादि नवरत्न, परमार्थ, शूद्रक, बाणभट्ट, मयूर, राजशेखर, पुष्पदन्त, हरिषेण, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, जदरूप, वृष्णि-वीर, कृष्ण-बलराम, चण्डप्रद्योत, वत्सराज उदयन, सम्राट अशोक, सम्प्रति, राजा विक्रमादित्य, महाक्षत्रप चष्टन, रुद्रदामन, परमार नरेश वाक्पति मुंजराज, भोजदेव व उदयादित्य, आमेर नरेश सवाई जयसिंह, महादजी शिन्दे जैसे कालजयी व्यक्तित्वों का कृतित्व इतिहास के प्रत्येक कालखंड को प्रकाशित करता रहा है।

ये सभी संत, साधु, ऋषि वस्तुतः अपने समय के विद्वान, साइंटिस्ट, रिसर्चर, सर्जन, एटॉमिक के मर्मज्ञ, वैमानिकी के ज्ञाता और व्याकरण विद द। यही कारण है कि नासा में हमारी काल गणना और कुंभ मेले में होनें वाले कल्पवास के अध्ययन हेतु सैकड़ों वैज्ञानिक इसके अगुह्य समीकरणों को सुलझानें में सतत लगे हुए हैं। आज जबकि हम विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में पश्चिम की ओर टकटकी लगाए देखतें रहतें हैं तब यह तथ्य हमें चमत्कृत करता है कि जब यूरोप में एक हजार से ऊपर की गणना का ज्ञान नहीं था।

तब हमें गणित की विराटतम संख्या तल्लाक्षण का भी ज्ञान था। तल्लाक्षण अर्थान एक के आगे त्रेपन शून्यों (फिफ्टी थ्री जीरो) को लगानें से निर्मित संख्या। ललित विस्तार नामक गणित के ग्रन्थ में तथागत बुद्ध उनकें समकालीन गणितज्ञ अर्जुन से उज्जैन क्षेत्र में ही चर्चा करते हुए तल्लाक्षण की व्याख्या इस प्रकार देतें हैं – सौ करोड़ = एक अयुत, सौ अयुत = एक नियुत, सौ नियुत = एक कंकर, सौ कंकर = एक सर्वज्ञ और सौ सर्वज्ञ का मान एक विभुतंगमा और सौ विभुतंगमा का मान एक तल्लाक्षण के बराबर होता है।

भारतीय काल गणना में उज्जैन के महत्त्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि सांस्कृतिक भारत के सर्वाधिक सनातनी और धार्मिक आयोजन सिंहस्थ हेतु नियत चार स्थानों में से एक स्थान का गौरव उज्जैन को प्राप्त है। पिछले हजारों वर्षो के इतिहास में उज्जैन की इस प्रतिष्ठा को अनेक राजाओं, ऋषियों, खगोल वैज्ञानिकों और तांत्रिकों ने समय समय पर पहचाना फलस्वरुप हर कालखंड में उज्जैन में विशिष्ट शैली के विज्ञान आधारित निर्माण हुए।

जयपुर के महाराजा जयसिंह नें 1719 में वेधशाला (प्रेक्षागृह) का निर्माण कराया। इसमें तारामंडल का सुन्दर वास्तु है एवं दूरबीन लगी है।

प्रवीण गुगनानी, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार

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